झारखंड स्थापना दिवस पर विशेष
स्वप्न और सच्चाई के बीच विस्थापन, पलायन, लूट और भ्रष्टाचार की लाइलाज बीमारी
काशीनाथ केवट
15 नवम्बर 2000 -वीर बिरसा मुंडा की जयंती का दिन।
आज से ठीक 25 वर्ष पूर्व बिरसा जयंती के पावन मौके पर बिहार से अलग होकर भारत का २८वाँ राज्य अस्तित्व में आया था। वह था झारखंड .
एक ऐसा राज्य, जिसके नाम में ही उसकी आत्मा छिपी है -
“झार” अर्थात जंगल, और “खंड” अर्थात भूमि का टुकड़ा.
जंगलों से घिरा, नदियों से पवित्र, खनिजों से भरपूर — यही झारखंड है. धरती के नीचे कोयले, लोहे और स्वर्ण सहित खनिजों का भंडार, और ऊपर हरियाली का आंचल. पर इस समृद्धि के बावजूद झारखंडी आज भी बदहाल हैं.
अलग राज्य आंदोलन : जंगलों से उठी पुकार
झारखंड राज्य की मांग पहली बार १९३८ में जयपाल सिंह मुंडा द्वारा गठित आदिवासी महासभा ने की थी. १९४९ में यही महासभा झारखंड पार्टी बनी और आंदोलन ने राजनीतिक रूप ले लिया. उस समय यह भावना थी कि बिहार की राजनीति में झारखंड क्षेत्र की उपेक्षा हो रही है.
लोगों का मानना था — यदि अलग राज्य बनेगा तो यहां के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का उपयोग स्थानीय लोगों के जीवन को बेहतर बनाएगा. लंबे संघर्षों, आंदोलनों और बलिदानों के बाद यह सपना २००० में पूरा हुआ। परन्तु २५ वर्षों बाद यह सवाल अब भी ज़िंदा है —क्या झारखंड अपने लोगों के लिए न्यायपूर्ण राज्य बन सका?
खनिजों का वरदान, झारखंडियों के लिए अभिशाप
आजादी के बाद औद्योगिकीकरण के नाम पर झारखंड की उपजाऊ भूमि खदानों और कारखानों को दे दी गई।
किसानों की जमीन अधिग्रहीत हुई, और वादे किए गए —
“रोजगार देंगे, घर बनाएंगे, खुशहाली लाएंगे।”
पर जो मिला वह केवल विस्थापन और दर-बदर की जिंदगी थी. कोलियरियों की कालिख ने गाँवों की हरियाली निगल ली. खनिजों की लूट ने जल-जंगल-जमीन की आत्मा छीन ली. जिनकी भूमि पर उद्योग खड़े हुए, वे खुद खानाबदोश बन गए.
राजनीति : कुर्सियों का उत्सव, जनता का इंतजार
राज्य गठन के बाद झारखंड ने १२ सरकारें, तीन राष्ट्रपति शासन और अनगिनत सियासी सौदे देखे।
कभी बाबूलाल मरांडी की डोमिसाइल नीति पर हंगामा हुआ, कभी मधु कोड़ा के अरबों के घोटाले से झारखंड की साख गिरी. शिबू सोरेन से लेकर हेमंत सोरेन तक, सत्ता की कहानी में जनता हमेशा “साइड रोल” में रही. जहाँ नेताओं ने सत्ता बदली, वहाँ जनता ने केवल चेहरे बदले — हालात नहीं. राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार झारखंड के विकास के रास्ते की सबसे बड़ी दीवार बन गए.
विकास की इबारत : आंकड़ों का सौंदर्य, सच्चाई की सादगी
निश्चित रूप से झारखंड ने कई उपलब्धियाँ भी देखी हैं —
देवघर में एम्स की स्थापना, रांची में मेडिकल कॉलेज, नई सड़कों और पुलों का निर्माण, बिजली के विस्तार ने बुनियादी ढांचे को मजबूत किया है. राज्य की प्रति व्यक्ति आय दस वर्षों में दोगुनी हुई है. लेकिन, इन आंकड़ों के पीछे का यथार्थ यह है कि गाँवों में बेरोजगारी और पलायन आज भी आम है. रघुराम राजन समिति ने झारखंड को भारत के पाँच सबसे पिछड़े राज्यों में गिना था —यह आँकड़ा आज भी हमें आईना दिखाता है.
विस्थापन, पलायन और स्थानीयता का संघर्ष
झारखंड में खदानें बढ़ीं, औऱ गांव के गांव खाली हुए। बेरोजगारों की पीढ़ियाँ अब भी पलायन कर रही हैं -पंजाब, गुजरात, दिल्ली तक. स्थानीयता की पहचान के लिए १९३२ के खतियान का प्रस्ताव पारित हुआ, पर वह कानून नहीं बन सका. झारखंड अब भी अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है.
२५ वर्ष बाद : झारखंड कहाँ खड़ा है?
खनिजों के मामले में झारखंड सबसे समृद्ध प्रदेश है,
पर मानव विकास सूचकांकों में लगभग सबसे नीचे.
छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड, जो झारखंड के साथ ही बने,
आज विकास के हर पैमाने पर आगे निकल चुके हैं.
यह विरोधाभास ही झारखंड की असली कहानी है —समृद्धि धरती की है, पर बदहाली इंसान की.
अंतिम स्वर : उम्मीद अब भी जीवित है
फिर भी, झारखंड की आत्मा मरी नहीं है।
यह धरती अब भी बिरसा, सिदो-कान्हू और शहीदों की आवाज़ से गूँजती है. यहाँ के युवक अब भी सपने देखते हैं -“अपनी धरती, अपना शासन, अपना विकास." २५ वर्षों का यह सफर संघर्षों का इतिहास है, पर यह इतिहास अधूरा नहीं रहेगा क्योंकि झारखंड की मिट्टी अब भी जीवन से भरी है. संदेश : “झारखंड की धरती समृद्ध है,
पर झारखंडी की झोली खाली है.
जब तक यह संतुलन नहीं बनेगा,
तब तक झारखंड का स्वप्न अधूरा रहेगा.”








